हल्दी (कुरक्युमा लोंगा) समूह-ज़िन्जिबेरेसी का पौधा है, जिसका प्रयोग मसाले, औषधि, रंग सामग्री और सौंदर्य प्रसाधन के रूप में तथा धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है । हल्दी की खेती एवं निर्यात में भारत विश्व में पहले स्थान पर है । भारत के मुख्य हल्दी उत्पादक राज्यों में आन्द्र प्रदेश, तमिलनाडु और उड़ीसा आदि शामिल हैं । भारत में 2.00 लाख हेक्टर आकलित क्षेत्रफल से इसका उत्पादन करीब 10.00 लाख टन है ।
हल्दी की खेती के लिए जलवायु और मिट्टी
हल्दी की खेती विभिन्न उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के समुद्र तट पर और सुमुद्र तट से 1500 मीटर तक ऊंचाई वाले स्थानों में 20-30 सेलेसियस के तापमान पर, 1500 मि. मीटर या उससे अधिक वर्षा मिलने वाले क्षेत्रों में तथा सिंचाई की पर्याप्त सुविधा वाले सूखे इलाकों में भी हल्दी पैदा की जा सकती है । यद्यपि यह विभिन्न प्रकार की मिट्टी में पैदा होती है, फिर भी अच्छे जल निकास वाली रेतीली या दुमट मिट्टी में इसकी पैदावार अच्छी होती है ।
हल्दी की प्रजातियाँ
देश भर में इसकी कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं और ज्यादातर ये उन्हीं स्थानीय नामों से जाने जाते हैं, जहाँ ये पैदा की जाती हैं । इनमें से कुछ प्रसिद्ध प्रजातियाँ दुग्गिराला, तेक्कुरपेट, सुगन्धम्, अमलापुरम, ईरोड़ लोक्कल, आलप्पी, मुवाट्टुपुषा और लाकडांग आदि हैं । ह ल्दी की उन्नत प्रजातियाँ और उनकी प्रमुख विशेषताएं तालिका-1 में दी गई हैं ।
भूमि की तैयारी
हल्दी की खेती में पहली मानसूनी वर्षा होते ही भूमि की तैयारी करनी चाहिए । लगभग चार बार जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बनाते हैं । लाटेराइट मिट्टी के लिए आर्द्र चूना 400 कि.ग्राम प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करके अच्छी तरह जुताई करते हैं । मानसून के पहली वर्षा होने के तुरन्त बाद 1.0-1.5 मीटर चौड़ी और 15 से.मी. की जगह छोड़कर क्यारियाँ बनाते हैं । मेंड़ बनाकर भी रोपाई की जा सकती हैं ।
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हल्दी की खेती में बुवाई का समय
हल्दी की खेती केरल और पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में, जहां वर्षा जल्दी शुरू होती है, वहाँ अप्रैल-मई में मानसून की वर्षा शुरू होते ही फसल की बुआई की जा सकती है ।
हल्दी की खेती में बीज दर एवं बुवाई की विधि
मूल प्रकन्दों को उसी रूप में या टुकड़े करके बुआई के लिए प्रयोग किया जाता है । इसके लिए स्वस्थ एवं रोग रहित प्रकन्दों को चुनना चाहिए । 25×30 से.मी. की दूरी पर बनाई गई कतारों में कुदाली से छोटे-छोटे गड्ढे खोदना चाहिए तथा मिट्टी या महीन गोबर की खाद से ढँक देना चाहिए । मेंड और कूंड़ के बीच के लिए अनुकूल दूरी 45-60 से.मी. और कतारों एवं पौधों के बीच 25 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए । हल्दी की खेती के लिए 2.500 कि.ग्राम बीज प्रकन्दें प्रति हेक्टर का दर से प्रयोग करते हैं ।
क्रम सं. |
प्रजाति | औसत उपज (ताजा) |
परिपक्वता (दिन) (ट./हे) |
शुष्क उपज |
कुरकु मिन |
ओलियोरेसिन % |
सुगन्धित तेल % |
---|---|---|---|---|---|---|---|
1 | सुवर्णा | 17.4 | 200 | 20.0 | 4.3 | 13.5 | 7.0 |
2 | सुगुणा | 29.3 | 190 | 12.0 | 7.3 | 13.5 | 6.0 |
3 | सुदर्शना | 28.8 | 190 | 12.0 | 5.3 | 15.0 | 7.0 |
4 | आई.आई.एस.आर.प्रभा | 37.5 | 195 | 19.5 | 6.5 | 15.0 | 6.5 |
5 | आई.आई.एस.आर.प्र तिभा | 39.1 | 188 | 18.5 | 6.2 | 16.2 | 6.2 |
6 | को -1 | 30.0 | 285 | 19.5 | 3.2 | 6.7 | 3.2 |
7 | बी.एस.आर-1 | 30.7 | 285 | 20.5 | 4.2 | 4.0 | 3.7 |
8 | कृष्णा | 9.2 | 240 | 16.4 | 2.8 | 3.8 | 2.0 |
9 | सुगन्धम | 15.0 | 210 | 23.3 | 3.1 | 11.0 | 2.7 |
10 | रोमा | 20.7 | 250 | 31.0 | 9.3 | 13.2 | 4.2 |
11 | सुरोमा | 20.0 | 255 | 26.9 | 9.3 | 13.1 | 4.4 |
12 | रंगा | 29.0 | 250 | 24.8 | 6.3 | 13.5 | 4.4 |
13 | रश्मी | 31.3 | 240 | 23.0 | 6.4 | 13.4 | 4.4 |
14 | राजेन्द्र,सोनिया | 42.0 | 225 | 18.0 | 6.4 | – | 5.0 |
रोपण सामग्री का स्रोत
क्र म सं. 1,2,3,4-5 -भा म अ सं परीक्षण फार्म, पेरुवन्नामूढ़ी- 673 52 8 कोषिक्कोड जिला, केरल ।
क्रम सं. 6-7 – मसाला एवं बागनी फसल विभाग, बागवानी संकाय, तमिलनाडु, कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर-641 003, तमिलनाडु ।
क्रम सं. 8 – महाराष्ट्र कृषि विश्वविद्यालय, कस्बा दिग्राज-416305, महाराष्ट्र ।
क्रम सं. 10,11 ,12-13 – उच्च तलीय अनुसंधान केन्द्र, उड़ीसा कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय, पोट्टांगी-764 039 उड़ीसा ।
क्रम सं. 14 – राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, बिहार ।
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हल्दी की खेती में उर्वरक की मात्रा एवं प्रयोग
हल्दी की खेती में भूमि की जुताई के समय अथवा रोपाई के बाद आधारीय खाद के रूप में गोबर की खाद व कम्पोस्ट 40 टन/हे. की दर से क्यारियों में फैलाकर बीजों को ढंकते हुए प्रयोग करना चाहिए । 60 कि.ग्राम नत्रजन, 50 कि. ग्राम फॉसफोरस तथा 120 कि.ग्राम पोटाश प्रति हे. की दर से उर्वरक बीच बीच में प्रयोग करना चाहिए, जैसा कि तालिका-2 में दिखाया गया है । रोपाई के समय ज़िन्क और मूँगफली की खली जैसे कार्बनिक उर्वरक 5 कि.ग्राम/हे. का भी प्रयोग किया जा सकता है । ऐसी स्थितियों में गोबर की खाद की मात्रा कम की जा सकती है ।
अनुसूचि | नत्रजन | फॉसफोरस | पोटाश | कम्पोस्ट/गोबर |
---|---|---|---|---|
आधारीय प्रयोग | – | 50 कि.ग्राम | 60 कि.ग्राम | 40 टन |
40 दिनों के बाद | 30 कि.ग्राम | – | – | – |
90 दिनों के बाद | 30 कि.ग्राम | – | 50 कि.ग्राम | – |
पल्वार करना
हल्दी की खेती में रोपाई के तुरन्त बाद हरे पत्ते 12-15 टन/हे. की दर से पल्वार करना चाहिए । खरपतवार निकालकर 45 दिनों के बाद उसी मात्रा में हरे पत्तों से पल्वार दोहराना चाहिए और उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए ।
हल्दी की फसल में निराई-गुड़ाई एवं विरलीकरण
खरपतवार की गहनता के आधार पर रोपाई के 60, 120 और 150 दिनों के बाद तीन बार निराई करना चाहिए । सिंचित फसलों के लिए, जलवायु एवं मिट्टी के अनुसार दोमट मिट्टी में 15-23 बार सिंचाई और रेतीली मिट्टी में 40 बार सिंचाई करना चाहिए ।
मिश्रित फसल
नारियल एवं सुपारी के बागानों में हल्दी सह फसल के रूप में पैदा की जा सकती है । मिर्च, अरवी, प्याज, बैंगन और मक्का तथा रागी आदि जैसे अनाजों के साथ भी इसे मिश्रित फसल की तरह उगाया जा सकता है ।
हल्दी की फसल में लगने वाले कीट का नियंत्रण
हल्दी की खेती में लगने वाले रोग
पर्णदाग (लीफ ब्लोच)
पत्ती धब्बा ट्रफीना माकुलन्स के कारण होता है और पत्तों के दोनों भागों पर छोटे, अण्डाकार, आयताकार या अनियमित बादामी रंग वाले धब्बों के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जो तुरन्त ही धुंधले पीले रंग या काले बादामी रंग में बदल जाते हैं, पत्ते भी पीले रंग के हो जाते हैं । रोग की तीव्र अवस्था में पौधे सिकुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं और प्रकन्दों की उपज भी कम हो जाती है । मान्कोज़ेब 0.2% के छिड़काव से इस रोग पर काबू पाया जा सकता है ।
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पर्ण चित्ती (लीफ स्पोट)
पर्ण चित्ती कोलट्टोट्राइकम काप्सिकी के द्वारा होता है जो नए पत्तों की ऊपरी सतह पर विभिन्न आकार में बादामी रंग वाली बिन्दियों के रूप में दिखाई पड़ते हैं । ये बिन्दियाँ अनियमित आकार वाली होती हैं और मद्य में सफेद या भूरे रंग वाली होती हैं । बाद में दो या अधिक बिन्दियाँ मिलकर पूरे पत्ते को ढँकने वाले अनियमित धब्बे हो जाते हैं । क्रमिक रूप से रोग ग्रस्त पत्ते धीरे धीरे सूख जाते हैं । प्रकन्दें अच्छी तरह विकसित नहीं हो पाती है । ज़िनेब 0.3% या 1% बोर्डो मिश्रण का छिड़काव से इस रोग पर नियंत्रण कर सकता है ।
प्रकन्द गलन
यह रोग पाइयम ग्रामिनिकोलम के द्वारा होता है । अस्थाई तनों के कालर भाग मृदु एवं तर हो जाते हैं, जिनके परिणाम स्वरूप पौधा गिर जाता है और प्रकन्दें सड़ जाती हैं । बीज प्रकन्दों को भण्डारण एवं रोपाई के पहले मान्कोज़ेब-0.3% के घोल में 30 मिनट तक उपचारित करने से इस रोग की रोकथाम की जा सकती है । खेतों में जब यह रोग दिखाई दे तो, क्यारियों को मानकोज़ेब 0.3% से उपचारित करना चाहिए ।
सूत्र कृमि कीट
जड़ गाँठ सूत्र कृमि (मेलोडोगैन स्पी.) और छेद बनाने वाले सूत्र कृमि (राडोफोलस सिमिलिस) हल्दी को हानि पहुंचाने वाले दो प्रमुख सूत्र कृमि हैं । जड़-क्षतकारी सूत्र कृमि (प्राटिलेन्कस स्पी.) सामान्यतः आन्ध्र प्रदेश में पाए जाते हैं । जहाँ सूत्र कृमियों के संक्रमण की संभावना अधिक होती है, केवल स्वस्थ एवं सूत्र कृमि रहित रोपण सामग्री का ही प्रयोग करना चाहिए । मिट्टी में कार्बनिक मात्रा की वृद्धि करने से भी सूत्र कृमियों की वृद्धि रोकी जा सकती है ।
कीट पेस्ट- तना बेधक
तना वेधक (कोनोगेलेस पंक्टिफेरालिस) हल्दी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाले कीट हैं । इनसकी सूँडियाँ अस्थाई तनों में रहती हैं और भीतरी ऊत्तकों को खाती हैं । छिद्रों में फ्रास (Frass) निकलना और मुरझाए हुए प्ररोह के मध्य भाग कीट होने के स्पष्ट लक्षण हैं ।
इसके वयस्क पतंगे मध्यमाकार वाले, जिनके पंख 20 मि.मी. चौड़ाई के और इन पंखों पर नारंगी-पीले रंग की छोटी काली बिन्दियाँ होती हैं । पूर्ण विकसित सूँडियाँ हल्के बादामी रंग के रोम वाली होती हैं । जुलाई-अक्तूबर के दौरान 21 दिनों के अन्तराल में मैलाथियन-0.1% या मोनोक्रोटोफोस-0.075% या डिपेल-0.3% (बासिल्लिस तुरेंनसिस से उत्पन्न) का छिड़काव से इन कीटों पर नियंत्रण कर सकता है । जब अस्थाई तनों के अंदरूनी पत्तों में कीट संक्रमण का प्रथम लक्षण दिखाई पड़े तब छिड़काव शुरू किया जा सकता है ।
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प्रकन्द शल्क
प्रकन्द स्केल (अस्पिडेल्ला हार्टी) प्रकन्दों में खेतों में (फसल कटाई के समय) और भण्डारण में संक्रमित करता है । वयस्क (मादा) स्केल वृत्ताकार (लगभग 1 मि.मी. व्यास में) और हल्के बादामी से भूरे रंग वाली होती है तथा प्रकन्दों पर पपड़ी के रूप में दिखाई पड़ती है । ये प्रकन्दों से रस चूसती हैं और जब प्रकन्दें ज्यादा संक्रमित होती हैं तब सिकुड़कर सूख जाती हैं, जिससे अंकुरण भी प्रभावित हो जाता है । बीज सामग्रियों को भण्डारण के पहले और बोने से पहले भी (यदि संक्रमण बना रहता है तो) क्विनालफोस-0.075% से 20-30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए । अधिक संक्रिमत पौधों का भण्डारण न करें और उन्हें छोड़ देना चाहिए ।
लघु कीट
लघु कीट के लारवा और वयस्क जैसे लीमा स्पी. पत्तों को खा लेते हैं, खासतौर पर मानसून के दौरान ये पत्तों पर लम्बें समानान्तर निशान बनाते हैं । प्ररोह वेधकों को रोकने के लिए मालथयोन-0.10.3% का छिड़काव करना काफी है ।
लेसविंग कीटों (स्टेफानैटिस टाइपिकस) से संक्रमित पत्ते पीले होकर सूख जाते हैं । इन कीटों का संक्रमण मानसूनोत्तर काल में अधिक होता है, खासकर देश के सूखे इलाकों में डाइमेथोएट या फोस्मामिडोन (0.05%) के छिड़काव से इन कीड़ों को रोका जा सकता है ।
हल्दी थ्रिप्स (पान्कीटो थ्रिप्स) कीड़ों से संक्रमित हल्दी पौधों के पत्तों के किनारे मुड जाते हैं और पीले होकर धीरे-धीरे सूख जाते हैं । इन कीटों का संक्रमण मानसूनोत्तर काल में अधिक होता है, खासकर देश के सूखे इलाकों में । डाइमेथोएट (0.05%) के छिड़काव से इन कीड़ों को नियंत्रण किया जा सकता है ।
संसाधन
ताजी हल्दी को सुखाकर सूखी हल्दी प्राप्त करते हैं । मूल प्रकन्दों से लगी हुई छोटी छोटी गाँठों को हटाते हैं । मूल प्रकन्दों को प्रायः बीज सामग्री के लिए रखा जाता है । हरी प्रकन्दों को पानी में उबालने के बाद धूप में सुखा लिया जाता है ।
परिशोधन के परम्परागत तरीके में प्रकन्दों को साफ करके उतने पानी में उबालते हैं जितने से प्रकन्दें डूबी रहें । जब इससे हल्दी की विशेष गन्ध के साथ झाग और सफेद धुआँ निकलने लगता है तब उबालना बन्द कर देते हैं । प्रकन्दें नरम होने तक 45-60 मिनट उबलना चाहिए । उबलना बन्द करने की अवस्था में हल्दी के रंग एवं सुगन्ध पर काफी प्रभाव डालती है । अधिक उबालने से उपज की गन्ध नष्ट हो जाती है और कम उबालने से हल्दी सूखी भंगुर हो जाती है ।
परिशोधन के विकसित वैज्ञानिक तरीकों में, साफ की हुई हल्दी की गाँठों को (करीब 50 कि.ग्राम) 0.9 मी.x 0.5 मी.x 0.4 मी. के आकार में GI या MS शीट से बनाई हुई समानान्तर हत्थे वाली छिद्र युक्त नाँद में रखा जाता है । हल्दी गाँठों सहित इस नाँद को कडाही में रखते हैं, नाँद में हल्दी डूबने तक 100 लीटर पानी भरते हैं । इसके बाद पूरी हल्दी को नरम होने तक उबाला जाता है । उबली हुई हल्दी को नाँद के साथ कडाही से निकालते हैं । हल्दी उबालने के लिए प्रयोग किये गये पानी को कच्ची हल्की के परिशोधन के लिए प्रयोग किया जा सकता है । कटाई से 2 या 3 दिन बाद हल्दी को संसाधित किया जाता है । यदि संसाधित करने में देरी हो तो, प्रकन्दों को छायादार स्थानों अथवा लकड़ी के बुरादे या नारियल जटा की धूल से ढँककर रखना चाहिए ।
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सुखाना
पकी हुई हल्दी की गाँठों को 5-7 से.मी. चटाई बिछाकर अथवा सूखी ज़मीन पर धूप में सुखाना चाहिए । पतली चादर पर सुखाना उपयुक्त नहीं क्योंकि इस तरह सुखाई गई हल्दी के रंग पर प्रतिकूल प्रभाव पढ़ता है । रात में प्रकन्दों को किसी ऐसी वस्तु से ढँकना चाहिए जिससे वायुसंचार अवरूद्ध न हो । इसके पूरी तरह सूखने में 10-15 दिन तक का समय लग सकता है । 600 सेलेसियस के अधिकतम तापमान पर गरम हवा (Cross flow hot air) देकर कृत्रिम तरीके से सुखाने पर भी संतोषजनक उपज प्राप्त होती है । बचे हुए हल्दी के टुकड़ों को धूप में सुखाने की अपेक्षा, कृत्रिम तरीके से सुखाने पर अच्छे रंग वाली उपज मिलती है क्योंकि धूप में सुखाने पर फर्श की घूल लगने से इनका रंग फीका हो जाता है । उत्पादित क्षेत्रों की किस्मों पर सूखी हल्दी की उपज 10-30% तक आधारित होती है ।
पॉलिश करना
सूखी हुई हल्दी देखने में अच्छी लगती है और इसकी बाहरी सतह पर छिलके और जड़ों के टुकड़े लगे होने के कारण खुरदरी होती है । इसे दिखने में अच्छा बनाने के लिए इसकी सतह को मशीनों या हाथ द्वारा रगड़कर चिकना और पॉलिश करके सुधार किया जाता है ।
हाथ से पॉलिश करने के लिए इसे सख्त ज़मीन पर रगड़ते हैं और नए तरीके द्वारा संशोधित करने के लिए हस्तचालित यंत्र के केन्द्रीय अक्ष पर लगे वेरलों/पीपों जिनके दोनों ओर घिसने वाली लोहे का जाल लगा होता है । जब हल्दी से भरे हुए वेरलों/पीपों को घुमाया जाता है तब जाली की सतह से रगड़ कर तथा पीपे के अन्दर हल्दी की गाँठों के आपस में रगड़ने से हल्दी चमकीली और चिकनी हो जाती है । बिजली से चलने वाले पीपों द्वारा भी हल्दी चमकीली की जाती है । पॉलिश करने के बाद हल्दी में 15-25% तक का बदलाव आ जाता है ।
रंगना
संशोधित हल्दी का रंग इसके मूल्य पर प्रभाव डालता है । उपज को आकर्षक बनाने के लिए पालिश करने के अंतिम दौर में थोड़ पानी मिलाकर हल्दी पाउडर का छिड़काव करना चाहिए ।
बीज प्रकन्दों का भण्डारण
हल्दी की खेती में बीज सामग्री के लिए रखी गई प्रकन्दों को हल्दी के पत्तों से ढँककर अच्छे हवादार कमरों में रखना चाहिए । बीज प्रकन्दों को लकड़ी के बुरादे, रेत, ग्लाइकोस्मिस पेन्टाफिल्ला (पाणल) के पत्तों आदि से भरे हुए गड्ढ़ों में भी रखा जा सकता है । इन गड्ढ़ों को हवादार बनाने के लिए एक या दो छिद्र युक्त लकड़ी के तख्तों से ढंकना चाहिए । यदि स्केल शल्क का संक्रमण दिखाई पड़े तो प्रकन्दों को 15 मिनट तक 0.075% क्विनालफोस के घोल में और फफूँदी के कारण भण्डारण में होने वाले मुकसान से बचने के लिए 0.3% मानकोज़ेब में डुबाना चाहिए ।
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हल्दि म कोई खरपवार उपलब्ध हैऐ?
नहीं है, निराई गुडाई करें अच्छा उत्पादन मिलेगा या पूर्व मे ही हल्दी लगाते समय पेन्डी मिथलीन दवा का उपयोग किया होता
Haldi me montha bhoat as
चुकिं हल्दी की फसल खेत मे खडी है तो निराई ही करे निराई करके हो सके तो मल्चिंग ( पुरानी फसल के अवशेष आदि)से कर सकते है| जिससे नालियाँ अवशेषों से ढक जाऐंगी और मोथा कम हो सकता है
हल्दी में प्रति एकड़ कितना उत्पादन होता हैा
और प्रति क्यूटल मूल्य कितना होता है
हल्दी की वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर 400से 500कुन्तल प्रति हैक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है|
हल्दी का बाजार भाव अलग अलग होता है अतः अपने क्षेत्र के हिसाब से गणना करना उचित रहेगा|
Haldi me sutrkrume dikhaya de de rahe hai kya kare sir
अगर पौधे सूख रहे है तो कोई भी दाने दार कीटनाशक का छिडक दे