अदरक की खेती (Ginger) मे अधिकतम उत्पादन एवं फसल सुरक्षा हेतु ध्यान देने योग्य विशेष बिन्दु।

अदरक की खेती : अदरक (ज़िन्जिबर ओफिसिनल) (समूह-जिन्जिबेरेसी) एक झाड़ीनुमा बहुवर्षीय पौधा है, जिसक प्रकन्द मसाले के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं । अदरक उत्पादन में भारत विश्व में सबसे आगे है । भारत के कई राज्यों में अदरक की खेती की जाती है । देश के प्रमुख अदरक उत्पादक राज्य केरल और मेघालय हैं । भारत में 8 लाख हेक्टर टन से इसका उत्पादन 13 लाख टन है ।

अदरक की खेती

अदरक की खेती के लिए भूमि और जलवायु

गर्म एवं आर्द्र में अदरक की पैदावार अच्छी होती है और समुद्र तट से 1500 मी. की ऊँचाई तक इसकी खेती की जाती है । अदरक शुष्क एवं सिंचित दोनों स्थितियों में पैदा किया जा सकता है। अदरक की अच्छी पैदावार मिलने के लिए बुआई के समय से लेकर प्रकन्दें तैयार होने तक सामान्य से मध्यम वर्षा और पौधे बढ़ने के दौरान मध्यम व भारी फुहार वाली वर्षा तथा कटाई करने से लगभग एक माह पहले सूखा मौसम अति आवश्यक है अच्छे जल निकाल वाली बलुई दुमट, चिकनी मिट्टी, लाल दुमट या लाटेराइट मिट्टी में अदरक की पैदावार अच्छी होती है । आर्द्रता युक्त भुरभुरी दुमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त है । फिर भी यह फसल मिट्टी को कमजोर करने वाली होती है इसलिए कई सालों तक इसकी खेती एक ही स्थान पर नहीं करना चाहिए ।

अदरक की प्रजातियां

भारत के विभन्न इलाकों में अदरक पैदा करते हैं और सामान्यतः उस अदरक को उसी स्थान के नाम से जाने जाते हैं । कुछ प्रमुख क्षेत्रीय प्रजातियाँ- मारान, कुरुप्पमपड़ी, एर्नाड, वयनाड, हिमाचल एवं नाडिया हैं । विदेशी किस्में जैसे रिंयो-डी- जनीरो भी कृषक- समाज में प्रसिद्ध हैं । अदरक की उन्नत प्रजातियाँ और उनकी विशेषताएँ तालिका-1 में दी गई हैं ।

मौसम

भारत के पश्चिमी तट पर मई के प्रमथ पखवाड़े में मानसून-पूर्व वर्षा होने पर अदरक की रोपाई की जा सकती है । सिंचित स्थानों में इससे पहले यानी फरवरी के मध्य या मार्च के आरम्भ में इसकी रोपाई की जा सकती है । सतही मिट्टी जलाने के बाद ग्रीष्मकालीन वर्षा होते ही रोपाई करने पर रोग की संभावना कम और उपज में वृद्धि होती है ।

क्रम.सं. प्रजाति/किस्म औसत उपज
(ताजी)ट./हे.
परिपक्वता
(दिन)
शुष्क उपज कच्चा रेशा ओलियोरेसिन
(%)
सुगन्धित तेल
1 आई.आई. एस आर-वरदा 22.66 200 20.7 4.5 6.7 1.8
2 सुप्रभा 16.60 229 20.5 4.4 8.9 1.9
3 सुरुचि 11.60 218 23.5 3.8 10.0 2.0
4 सुरवी 17.50 225 23.5 4.0 10.2 2.0
5 हिमगिरी 13.50 230 20.6 6.4 4.3 1.6
6 चीन 9.50 200 21.0 3.4 7.0 1.9
7 असम 11.78 210 18.0 5.8 7.9 2.2
8 मासन 25.21 200 20.0 6.1 10.0 1.9
9 हिमाचल 7.27 200 22.1 3.8 5.3 0.5
10 नाडिया 28.55 200 22.6 3.9 5.4 1.4
रियो-डी- जनेरो 17.65 190 20.0 5.6 10.5 2.3

रोपण सामग्री का स्रोत

क्रम सं. 1 और 8 – भा म अ सं परीक्षण फार्म, पेरुवन्नामूढ़ी- 673 528 कोषिक्कोड जिला, केरल ।

क्रम सं. 2.3 और 4– उच्च तलीय अनुसांधन स्टेशन, उड़ीसा कृषि और तकनीकी विश्वविद्यालय, पोट्टाँगी, 764 039, उड़ीसा

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अदरक की खेती के लिए भूमि की तैयारी और रोपाई

अदरक की खेती में मिट्टी को भुरभुरा बनाने के लिए ग्रीष्म कालनी वर्षा होते ही खेत की 4-5 बार अच्छी तरह जुताई करना चाहिए । लगभग 1 मीटर चौड़ी, 15 से.मी. ऊँची और सुविधानुसार लम्बी क्यारियों के दरम्यान 5.0 से.मी. की दूरी पर कतारें बनाइए । सिंचाई वाली फसलों की क्यारियों में 4.0 से.मी. की दूरी पर मेंड या डाडा बनाना चाहिए । कंद सड़ने के रोग एवं सूत्र कृमियों के संक्रमण की संभावना वाले क्षेत्रों में पारदर्शी पोलिथीन कवर प्रयोग करके 40 दिन तक क्यारियों का सौरीकरण करने कि सिफारिश की गई है ।

प्रवर्धन

अदरक का प्रवर्धन प्रकन्द भाग से होता है जो बीज प्रकन्द नाम से जाने जाते हैं । सावधानी पूर्वक परिरक्षित बीज प्रकन्दों को एक या दो अच्छी कलिकाओं से युत 2.5-5.0 से.मी. लम्बी औ 20-25 ग्राम वज़न के छोटे टुकड़ों में काटते हैं । खेती करने के तरीके और क्षेत्र के आधार पर बीज दर अलग अलग अपनाई जाती है । केरल में एक हेक्टर के लिए 1500-1800 कि.ग्राम बीच पर्याप्त होता है, जबकि अधिकतम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में प्रति हेक्टाअर 2000 से 2500 कि.ग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है । बीच प्रकन्दों को 0.3% मान्कोज़ेब (एक लीटर पानी में 3 ग्राम) से 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए और 3-4 घंटे तक छाया में सुधाने के बाद 20-25 से.मी. की दूरी पर बनाई गई कतारों में बीच 20-25 से.मी. की जगह छोड़कर रोपाई करना चाहिए । बीच प्रकन्दों के टुकड़ों कुदाल से बनाए गए उथले गड्ढों में रखकर अच्छी तरह सड़ी गोबर की खाद एव मिट्टी की पतली तह से ढँक देना चाहिए ।

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अदरक की खेती में खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं प्रयोग

अदरक की खेती में रोपाई के समय पर 25-30 टन प्रति हेक्टर की दर से कम्पोस्ट अथवा अच्छी तरह सड़ी और सूखी गोबर की खाद क्यारियों में डालनी चाहिए । रोपाई के समय 2 टन प्रति हेक्टर की दर से नीम की खली प्रयोग करने से प्रकन्द सड़न रोग की संभावना कम हो जाती है और पैदावार बढ़ जाती है । अदरक के लिए 75 कि. ग्राम नत्रजन, 50 कि.ग्राम फोसफोरस और 50 कि. ग्राम पोटाश प्रति हेक्टर की दर से उर्वरकों का प्रयोजन करने की सिफारिश की गई है । उर्वरकों का प्रयोग अलग अलग मात्रा में करना चाहिए (तालिका-2) । खाद देने के बाद हर बार कतारों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए ।

अदरक के लिए उर्वरक देने की अनुसूची (प्रति हे.)

उर्वरक. आधारी प्रयोग 40 दिनों के बाद 90 दिनों के बाद
नत्रजन 37.5 कि.ग्राम 37.5 कि.ग्राम
फोसफरस 50 कि.ग्राम
पोटाश 25 कि.ग्राम 25 कि.ग्राम
कम्पोस्ट/गोबर 25-30
नीम की खली 2 टन 230

कृषि क्रियाएँ

अदरक की खेती में भारी वर्षा के कारण मिट्टी के अपरदन को रोकने के लिए कतारों पर हरे पत्तों से पलवार करना चाहिए । इससे मिट्टी में जैविक मात्रा बढ़ जाती है और देर से रोपाई करके के समय तक नमी बनायी रखी जा सकती है । 10-12 टन/हे. की दर से हरे पत्तों से पहली पलवार रोपाई के समय की जाती है और रोपाई को 40 और 90 दिनों के अंतराल में खरपतवार निकालने के और उर्वरकों के प्रयोग करने के फौरन बाद 5 टन/हे. की दर से दोबारा पलवार करना चाहिए । उर्वरको का प्रयोग करने और पलवार करने से पहले निराई करना चाहिए । खरपतवार बढ़ने की तीव्रता के अनुसार 2-3 बार निराई करना चाहिए । जहां पानी का निकास अवरूद्ध है वहाँ जलनिकास के लिए उचित नालियाँ बनाएँ ।

फसल चक्र और मिश्रित फसल

प्रायः अदरक में फसल चक्र अपनाया जाता है । अदरक के साथ बदल बदल कर बोई जाने वाली फसलों में टापियोका, रागी, धान, तिल, मूँगफली, मक्का और सब्जियां शामिल हैं । कर्नाटक में रागी, लाल चना और एरंडी के साथ अदरक की खोती की जाती है। केरल और कर्नाटक में नारियल, सुपारी, कोपी, और संतरा बागानों में अदरक की खेती की जाती है ।

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पैध संरक्षण

अदरक की खेती में लगने वाले रोग

मृदु गलन कन्द गलन

अदरक की खेती में सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाला रोग मृदु गलन है, जिसका परिणाम रोग ग्रस्त पौधों का पूर्णतः नष्ट करना है । यह रोग मिट्टी के द्वारा फैलता है और इसका कारण पिथियम अफानिडेमैटस पी. वेक्सान्स है और पी. मिरियोटिलस को भी इस रोग का कारण माना जाता है । दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के आरम्भ से मिट्टी में आने वाली नमी से इसमें फफूँद की वृद्धि होती है । ज्यादातर नई कोपलें इन रोगाणुओं का शिकार होती हैं । यह रोग अस्थायी तनो के कालर भाग से शुरू होकर ऊपर से नीचे फैसला है । रोग ग्रस्त अस्थायी तनों का कालर भाग पानी से भीगा हुआ-सा हो जाता है और इसके कन्द तक फैलने से मृदु गलन हो जाता है । अंतिम व्यवस्था में जड़ें तक संक्रमित हो जाती हैं । निचले पत्तों के अग्र भाग हल्के पीले रंग के हो जाते हैं और पत्र दल तक फैल जाता है । रोग की प्रारंभिक अवस्था में पत्तों के मध्य भाग हरे रहते हैं जबकि किनारे पीले हो जाते हैं । यह पीलापन नीचे से ऊपर तक पौधों के सारे पत्तों में फैल जाता है और बाद में अस्थाई तने झुक जाते हैं और मुरझाकर सूख जाते हैं ।

रोग प्रभाव करने के लिए बीज प्रकन्दों को दो बार (पहला बीच भण्डारण से पहले और दूसरा रोपाई के पहले) 0.3% मैन्कोज्म से 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए । सस्य क्रियाएँ जैसे रोपाई के लिए अच्छे जल निकास वाली भूमि का चयन रोग की रोकथाम के लिए अति महत्वपूर्ण है । जल निकास अवरूद्ध हो जाने से पौधे संक्रमित हो जाते हैं । चूंकि यह रोक बीज द्वारा पैदा होता है इसलिए बीच प्रकन्दों को रोग मुक्त बागों से ही लेना चाहिए । ट्राइकोडेर्मा हार्जियोनम के साथ नीम खली 1 कि.ग्राम प्रति क्यारी की दर से प्रयोग करना रोग की रोकथाम के लिए सहायक होता है । खेतों में एक बार यह रोग दिखाई पड़ने पर रोगी पौधों को उखाड़ना और प्रभावित भाग को अच्छी तरह गीला करना चाहिए और रोग को फैलने से रोकने के लिए 0.3% मैन्कोजेब द्वारा क्यारियों को चारों ओर से उपचारित करना चाहिए ।

अदरक की खेती में जीवाणुओं से होने वाले झुलसा रोग

रालस्टोनिया सोलानेसियेरम से होने वाले झुलसा रोग भी मिट्टी और बीज से उत्पन्न रोग है, जो दक्षिणी पश्चिमी मानसून के समय दिखाई पड़ता है जब पौधे तरुण होते हैं । अस्थायी तनों के कालर भाग पानी से भीगे हुए जैसे दिखाई पड़तेहैं और यह ऊपर नीचे फैलता है । पौधों के निचले पत्तें मुरझाना और पत्तों के किनारे मुड़ जाना इसका प्रारंभिक स्पष्ट लक्षण है । पीलापन सबसे निचले पत्तों से शुरू होता है और धीरे धीरे ऊपरी पत्तों तक फैल जाता है । पौधों में गहरी पीलापन और झुलसा रोग के लक्षण दिखाना रोग की पहली अवस्था होती है । संवहनीय ऊतकों में गहरी काली रेखाएं दिखाई पड़ती हैं । रोग ग्रस्त अस्थाई तने और प्रकन्दों को जब हल्के से दबाते हैं, तब संवहनीय ऊत्तकों से दूध जैसा द्रव निकलता है । मृदु गलन के प्रबन्धन के लिए अपनाई गई सस्य क्रियाएँ जीवाणु झुलसा रोग के लिए भी अपनाई जा सकती है । बीज प्रकन्दों को रोपाई के पहले स्ट्रेप्टोसाईक्लिन 200 पी पी एम से 30 तक उपचारित कीजिए और रोपने से पहले छाया में सुखाइए । एक बार खेतों में इस रोग की सूचना मिलने पर सारी क्यारियों को 1% बोर्डो मिश्रण से या 0.2% कोप्पर ऑक्सिक्लोराइड के घोल से अच्छी तरह भिगोकर उपचारित करना चाहिए ।

पत्र-दाग

पत्र-दाग का कारण फिल्लोस्टिका जिन्जिबेरी है और एक रोग पत्तों पर जुलाई से अक्टूबर तक दिखाई देता है । यह रोग गीले दागों के रूप में शुरू होता है और बाद में गहरे बादामी रंग के हाशिए एवं पीले रंग के घिरे हुए सफेद दागों में बदल जाता है और यह ऊतकक्षयी स्थल से बढ़कर निकटवर्ती दागों से मिल जाता है । रुक रुक कर आने वाली वर्षा के दौरान यह रोग फैलता है । आरक्षित परिस्थितियों में उगाए गए अदरक में यह रोग तेजी से फैलता है । 1% बोर्डो मिश्रण या 0.2% मान्कोजेब के छिड़काव से इसे नियंत्रित किया जा सकता है ।

सूत्र कृमि रोग

सूत्र कृमियों से होने वाले अदरक रोगों से जड़ गाँठ (मेलोडोगैन स्पी.), छिद्र (राडोफोलस सिमिलिस) और दाग (प्राटिलेन्कस स्पी.) मुख्य हैं । पत्तियों में वृद्धि रोग, हरितिमा क्षय, पुअर टिलरिंग और ऊत्तक क्षय आदि इस रोग के सामान्य लक्षण हैं । जड़ों में विशेष तरह की गाँठें और दाग जो जड़ गलन रोग के संकेत, सामान्यतः जड़ों में दिखाई देते हैं । रोग ग्रस्त कन्दों के बाहरी उत्तकों बादामी रंग के गीले दाग होते हैं । सूत्र कृमियों से संक्रमित कंद द्वारा जड़ गलन रोग तीव्रता से फैलता है । रोग ग्रस्त कन्दों को गरम पानी (50o C) 10 मिनट तक उपचारित करने से सूत्र कृमियों के संक्रमण को रोका जा सकता है और अदरक क्यारियों का 40 दिन तक सौरीकरण करने से सूत्र कृमि रहित बीज प्रकन्दप्राप्त किए जा सकते हैं ।

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कीट पेस्ट- प्ररोह बेधक

अदरक को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले कीट प्ररोह वेधक (कोनोगेतेस पंक्टिफेरालिस) है । अस्थाई तनों में होने वाली सूंडियाँ आंतरिक ऊत्तक खा लेती हैं, परिणामस्वरूप संक्रमित अस्थाई तना पीले रंग के हो जाते हैं और पत्ते सूख जाते हैं । अस्थाई तनों के छिद्रों में फ्रास (Frass) निकलना और पीले रंग के मुरझाई हुई प्ररोहें कीट संक्रमण का लक्षण है । इसके वयस्क 20 मि,मी, चौड़े पंख वाले और मध्यमाकार के पतंगे जैसे होते हैं, नारंगी-पीले रंग के पंखों पर छोटी काली बिन्दियाँ होती है । पूर्ण विकसित सूँडियाँ रोग सहित हल्के बादामी रंग की होती हैं। सितंबर-अक्तूबर में इन कीटों की संख्या सर्वाधिक होती है ।

जुलाई-अक्तूबर में 21 दिनों के अंतराल से 0.1% मालथयोन या 0.075% मोनोक्रोटोफोस या 0.3% डिपेल का छिड़काव प्ररोह वेधकों की रोकथाम कर सकता है । अस्थाई तने के सबसे ऊपर वाले पत्तों में जब कीट संक्रमण के प्रथम लक्षण दिखाई दें, तब छिड़काव शुरू किया जा सकता है । जुलाई-अगस्त में संक्रमित अस्थाई तनों की काट-छाँट पाक्षिक अंतराल में और सितंबर-अक्तूबर में मासिक अंतराल से 0.1% मालथयोन का छिड़काव भी प्रभावपूर्ण है ।

प्रकन्द स्केल (Rhizome scale)

प्रकन्द स्केल (अस्पिडिल्ला हार्टी) खेत में और भण्डारण में प्रकन्दों को प्रभावित करता है । वयस्क (मादा) स्केल वृत्ताकार है (लगभग 1 मी.मी. व्यास) और हल्के बादामी रंग में भूरे रंग वाले होते हैं, जो प्रकन्दों पर पपड़ी के रूप में दिखाई पड़ती है । जब इनका संक्रमण तीव्र होता हो तब ये प्रकन्दों का रस चूस लेते हैं, जिससे प्रकन्दें सिकुड़ जाती हैं और अंकुरण प्रभावित होता है । प्रकन्दों को भण्डारण के पहले और यदि रोग संक्रमण फिर भी रहे तो, रोपाई के पहले क्विनालफोस 0.075% (20 मिनट तक) से उपचारित करने से कीट पर नियंत्रण कर सकता है । जिन प्रकन्दों में रोग संक्रमण अधिकहो उनको भण्डारण के पहले निकाल देना चाहिए ।

लघु कीट

पत्ती मोड इल्ली की सूँडियाँ (उडास्पस फोलस) पत्तों को काटती हैं और अन्दर से खा लेती हैं । यह वयस्क मध्यमाकार के पतंगे हैं जिनके काले पंखों पर सफेद बिन्दियाँ होती हैं, सूँडियाँ गहरे हरे रंग की होती हैं । जब इसका संक्रमण तेज होता है तब कार्बरिल (0.1%) या डिमेथोएट (0.05%) का छिड़काव करना चाहिए । जड़ सूँडी प्रायः तरुण प्रकन्दों, जड़ों और अस्थाई तनों के आधार को खा लेतीं हैं, परिणामस्वरूप प्ररोहों में पीलापन और झुलसा रोग हो जाता है । क्लोरोपारिफोस 0.077%) द्वारा मिट्टी उपचारित करने से इस पर नियंत्रण किया जा सकता है।

अदरक की खेती में कटाई एंवं शुष्कन

रोपाई के लगभग 8 माह जब पत्ते पीले होकर धीरे धीरे सूखने लगते हैं तब इसकी कटाई की जा सकती है । प्रकन्द गुच्छों को कुदाली या फावडे द्वारा सावधानीपूर्वक हटाना चाहिए और प्रकन्दों को सूखी पत्तियों तथा जड़ों में लगी हुई मिट्टी से अलग करना चाहिए ।

सब्जी में इस्तेमाल करने के लिए अदरक की कटाई छः महीने में ही की जा सकती है । प्रकन्दों को पानी से अच्छी तरह धोकर एक दिन धूप में सुखाना चाहिए ।

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सौंठ तैयार करने के लिए छः महीने या उसके बाद काटे गए अदरक को 6-7 घंटे तक पानी में भिगोइए । फिर प्रकन्दों को अच्छी तरह खुरच कर बाहरी पदार्थ को हटा लेते हैं । सफाई केबाद प्रकन्दें पानी से बार निकालकर तेज धार वाले बांस के पतले टुकड़ों से इसकी बाहरी छाल हटा लेते हैं । गहरी खुरचाई मत करें ताकि छाल के ठीक निचले भाग में होने वाली तैलीय कोशिकाओं को नुकसान ने पहुँचे । छिली हुई प्रकन्दों को धोने के बाद एक हफ्ते तक धूप में सुखाएँ । सूखी हुई प्रकन्दों को एक साथ रगड़कर अटकी हुई छाल को हटा देते हैं । अदरक पैदा करने वाले क्षेत्रों की किस्मों एवं प्रजातियों के अनुसार 19-25% सौंठ प्राप्त होती है ।

रोपाई के 170-180 दिनों बाद काटे गए (प्रायः कम रेशे वाले) हरे अदरक को चमकीली सौंठ तैयार करने के लिए प्रयोग करते हैं । अस्थाई तनों सहित तरुण प्रकन्दों को अच्छी तरह धोकर 1% सिट्रिक एसिड के 30% नमकीन घोल में डुबा देते हैं ।14 दिनों के बाद सौंठ तैयार हो जाती है और इसे ठंडी जगहों में रख सकते हैं ।

अदरक की खेती में बीज प्रकन्दों का परिरक्षण

अच्छे अंकुरण के लिए बीच प्रकन्दों को छाया में बनाए गए गड्ढों में रखना चाहिए । बीज प्रकन्दों के लिए कटाई के तुरंत बाद रोग मुक्त पौधों से मोटी और स्वस्थ प्रकन्दों को चुन लेते हैं । जब यह 6-8 महीने के होकर हरे रहते हैं तब रोग मुक्त झुंडों को खेतों में ही चिन्हित कर देते हैं । बीच प्रकन्दों को 0.075% क्विनालफोस और 0.3% मान्केजेब से 30 मिनट तक उपचारित करके छाया में सुखाना चाहिए । बीज प्रकन्दों को छाया में बनाए गए उचित आकार के गड्ढ़ों में रख दें । गड्ढ़ों के चारों ओर गोबर का लेपन करें । बीज प्रकन्दों को अच्छी तरह सूखी रेत या धूल (एक परत बीज प्रकन्द और इस पर 2 से.मी. मोटी रेत की परत या धूल) से ढँक देते हैं । पर्याप्त वायुसंचार के लिए गड्ढ़ों के ऊपरी भाग में काफी जगह छोड़नी चाहिए । इन गड्ढों को वायुसंचार के लिए एक या दो छिद्र वाले काठ के तख्तों से ढँक देना चाहिए । गड्ढों में रखी गई बीज प्रकन्दों को काठ के तख्तों को 21 दिनों के अंतराल में हटाकर जाँ करते रहना चाहिए और सिकुड़ी हुई एवं रोगग्रस्त प्रकन्दों को हटा देना चाहिए । ज़मीन पर छाया में बनाए गए गड्ढ़ों में भी बीज प्रकन्दों को रखा जा सकता है । कृषक बीच प्रकन्दों को ग्लाइकोस्मिस पेन्टाफिल्ला (पाणल) की पत्तियों में रखकर परिरक्षित करते हैं

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