पौधों की वृद्धि के लिए 18 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। ये पोषक तत्वों को मिट्टी, पानी एवं वायुमण्डलीय गैसों द्वारा पौधों को प्राप्त होते है। इन 18 पोषक तत्वों में से कुल 6 पोषक तत्व मुख्य पोषक तत्वों की श्रेणी में आते हैं जैसे- नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं सल्फर। यदि मिट्टी में इन आवश्यक पोषक तत्वों की कमी हो जाती है तो पौधों अपना जीवन-चक्र सफलतापूर्वक पूरा नहीं कर पाते है।
मुख्य पोषक तत्वों की कमी के लक्षण
पौधों में पोषक तत्वों की कमी या असन्तलु न अव्यवस्था के फलस्वरूप बाहरी भूख के लक्षण दिखाई पड़ते है जो कि सावधानी से प्रेक्षण तथा अध्ययन करने से मालूम किये जा सकते है। यह लक्षण उस समय विशेष प्रकार के होते है। जब अल्पता तीव्र होती है और एक ही पोषक तत्वों के द्वारा होती है। आमतौर पर उनकी पहचान करने के लिए काफी अनुभव की आवश्यता होती है। पौधों में मुख्य पोषक तत्वों की कमी या अल्पता के दृष्टिगत लक्षण इस प्रकार हैः
नाइट्रोजन की कमी के लक्षण
1. पौधों की पत्तियों का रंग पीला या हल्का हरा हो जाता है।
2. पौधों की वृद्धि ठीक प्रकार से नहीं हो पाती है या रूक जाती है, इसलिए पैदावार कम होती है।
3. दाने वाली फसलों में सबसे पहले पौधों की निचली पत्तियाँ सूखना प्रारम्भ कर देती है और धीरे-धीरे ऊपर की पत्तियाँ भी सूख जाती है।
4. गेहूँ तथा अन्य फसले जिनमें टिलर फार्मेशन (कल्ले निकलना) होता है। इसकी कमी से कल्ले (टिलर) कम बनते है।
5. फलो वाले पेड़ो में अधिकतर फल पकने से पहले ही गिर जाते है।फलो का आकार भी छोटा होता है। परन्तु फलो का रगं बहतु अच्छा होता है।
6. पत्तियों का रंग सफेद हो जाता है और कभी-कभी पौधों की पत्तिया जल भी जाती है।
7. हरी पत्तियां के बीच-बीच में सफेद धब्बे (क्लोरोसिस) भी पड़ जाते हैं।
8. पीला सा हरा रंग एक सुपुष्ठ और धीमी और बौनी विद्ध/पत्तियो का सूखना या झुलसना जो कि पौधों की तली से प्रारम्भ होता है और ऊपर की ओर बढ़ता है। मक्का, अनाज और घासों जैसे पौधों में झुलसन तली की पत्तियां के अग्र भाग से प्रारम्भ होती है आरै केन्द्र के नीचे की आरे या मध्य शिरा के साथ-साथ चलती है।
सुधार
1. खाद एवं नाइट्रोजनधारी उवर्र को के उचित मात्रा में प्रयोग से
2. जल निकास एवं लीचिंग को सुधार करके
3. फलीदार फसलों/ दलहनी फसलों को उगाकर
4. मृदा में वायु संचार सुधार कर
5. हरी खाद उगाकर
6. नीली-हरी एल्गी उगाकर
नाइट्रोजन की अधिकता से हानियाँ
आवश्यकता से अधिक नाइट्रोजन भी फसलों के लिए हानिकारक होती है। इसलिए खाद एवं उवर्रको का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान दिया जाए कि फसल को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नाइट्रोजन न दी जाए। अधिक मात्रा में नाइट्रोजन देने से निम्न हानिकारक प्रभाव होते है:
1. पौधों में कामे लता आ जाती है आरै तने कमजारे हो जाते है जिससे थोड़ी सी हवा चलने पर फसल गिर जाती है।
2. कोमल पौधों पर कीड़े-मकोड़े का आक्रमण अधिक होता है।
3. फसल देर से पककर तैयार होती है।
4. भूसे के अनुपात में दाना घट जाता है। गेहूँ इसका ज्वलंत उदाहरण है।
5. सब्जियो और फसलो मे रखने के गुण कम हो जाते है जिससे इन्हें अधिक समय तक नहीं रख सकते।
6. गन्ने की फसल में अधिक मात्रा में नाइटा्रजेन का प्रयोग करने से शक्कर की मात्रा कम हो जाती है।
7. आलू तथा अन्य फसलो में अधिक मात्रा में नाइट्राजे न के कारण पत्तियो की वृद्धि अधिक होती है जिससे उत्पादन कम हो जाता है।
8. पौधोंकी दीवारे मुलायम एवं पतली होने के कारण गर्मी एवं कोहरे से बहुत हानि होती है।
फास्फोरस की कमी के लक्षण
1. फास्फोरस की कमी से पौधो का रंग प्रायः गहरा हरा ही रहता है पर उनकी निचली पत्तियाँ पीली होकर सूख जाती हैं।
2. पौधों की बढ़वार रूक जाती है और पत्तियाँ छोटी रह जाती है।
3. मूलतंत्र का विकास तथा फलों का उत्पादन कम हो जाता है आरै पौधों मुड़े हएु व छोटे रह जाते हैं।
4. मक्का में पत्तियाँ बैंगनी-हरी हो जाती है। फसल देर से पकती है और भुट्टे भली प्रकार से नहीं बन पाते हैं।
5. गन्ने की पत्तियाँ सकरी आरै नीली हरी हो जाती है।
6. कपास के पौधों का रगं गहरा हरा हो जाता है आरै शाखाये एवं पत्तियाँ छोटी रह जाती है तथा उनकी बौड़िया देर से पकती है।
7. दहलनी पौधो में गहरा रगं होने के अलावा पत्तियाँ ऊपर की आरे मुड़ जाती है। पत्ते बहुत छोटे और पतले रहते हैं।
8.जड़ो की ग्रन्थियों की संख्या एवं उनका आकार कम हो जाता है।
9. आलू की फसल में पत्तियाँ सामने की तरफ मुड़ जाती है और पत्तियों के किनारे झुलस जाते हैं।आलू के भीतरी भाग में धब्बे पड़ जाते हैं।
10. नीबू वर्ग के पौधों की बढ़वार रूक जाती है। सबसे पहले उनकी पुरानी हरी पत्तियों का रंग फीका पड़ता है। उनका रंग पीला-हरा या कांसे जैसा हो जाता है। ऐसी पत्तियोंपर निक्रोसिस रोग के चकत्ते पड़ जाते है।
11. पौधों की पत्तियाँ, तना तथा शाखायें, नील-लोहित हो जाती है। वृद्धि धीमी होती है तथा परिपक्वता देर से होती है। छोटा वृत्तीय तना होता है और अनाज, फल तथा बीज की कम पैदावार होती है तने का रगं गहरा होता है।
सुधार
1. खाद एवं फास्फोरसयुक्त उर्वरकों के उचित मात्रा में प्रयागे से।
2. अम्लीय मृदाओं का पी.एच. अधिक करके या नियन्त्रण करके।
3. उचित जल निकास करके।
पोटेशियम की कमी के लक्षण
1. पोटेशियम की कमी के लक्षण सर्वप्रथम पौधां की परिपक्व पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते है। इन पत्तियों के किनारे झुलसे हएु दिखाई देते है।
2. अनाजों की फसलों में इसकी कमी से तने पतले हो जाते है तथा अधिक कमी में पत्तिया झुलस जाती है।
3. टिलर पर बालियाँ नहीं आती है तथा दानो का विकास नहीं हो पाता है।
4. कपास में पीली सफदे कुर्वुरण रोग हो जाता है जिससे रेशों का गुण उच्च कोटि का नहीं होता है।
5. दलहनी पौधों में इसकी कमी का पहला लक्षण पत्तियो के किनारों पर चकतों के रूप में देखा जाता है। बाद में यह जगह जल्दी ही सूख जाती है। पौधोंकी वृद्धि नहीं होता आरै पौधों बौने रह जाते हैं।
6. तम्बाकू के पौधों की पत्तियों की नसों की बीच में उनके सिरों पर या किनारों पर छोटे – छोटे धब्बे पड़ जाते है। पत्तियों का रूप खराब हो जाता है आरै जलने की क्षमता भी कम हो जाती है।
7. नींबू वर्गीय पौधों में फलू आने के समय पत्तियाँ बहतु ज्यादा झड़ती है। कोपलें आरै नई पत्तियाँ पकने आरै कडी़ होने से पहले ही झड़ जाती है।
8. निचली पत्तियों पर छोटे – छोटे घाव होते हैं या वे किनारों तथा शिरो पर जली सी होती है। कटे – फटे किनारो को छोड़ते हएु मतृ क्षत्रे गिरकर अगल हो सकते हैं। घासो आरै धन यों (अनाजों) में झुलसन पत्तियों के अग्र भाग से प्रारम्भ होती है आरै मध्य शिरा को छोड़ते हुए अक्सर किनारे से नीचे की ओर बढ़ती है।
सुधार
पोटेशियम की कमी मृदा में खाद एवं पोटाशधारी उवर्रकों के प्रयोग से तथा लीचिगं को नियन्त्रित करके दूर की जा सकती है।
कैल्शियम की कमी के लक्षण
1. अतं स्थ कलिका में नई पत्तियाँ ‘हकु दार’ शक्ल की हो जाती है या देखने में सिकुड़ी हुई लगती है।
2. नई पत्तियों के किनारो और अग्र भागों पर मृत धब्बे होते हैं।
3. जड़ों का मतृ हो जाना सभी लक्षणों से पहले होता है।
4. जड़े छोटी और बहुत शाखाओ वाली होती है।
5. पत्तियों के किनारों के साथ-साथ हल्की हरी पट्टी दिखाई देती है।
6. आलू के पौधे झाड़ी की तरह हो जाते हैं।
7. नींबू वगीर्य पौधों की पत्तियों का हरा रगं उनके किनारों की आरे से फीका पड़ना आरम्भ होता है और बढ़ते-बढ़ते नसों की बीच की जगहां तक पहुँच जाता है।
सुधार
1. मृदा सुधारकों जैसे जिप्सम, चूना के प्रयोग से
2. सडी़ गोबर की खाद से
3. उर्वरकों जैसे सुपर फॉस्फेट, कैल्शियम आयाे नयम नाइटट्रे आदि।
मैग्नीशियम की कमी के लक्षण
1. शिराओं के बीच हरे रगं की सामान्य हानि होती है जो कि निचली पत्तियों से प्रारम्भ होती है और बाद में वृत्त की ओर बढ़ती है।
2. पत्तियों की शिराये हरी बनी रहती है।
3. हरी शिराओं के बीच में कपास की पत्तियाँ अक्सर लाल-नील लोहित में बदल जाती है।
4. शिराओं के बीच में मृत क्षत्रे बहुत ही शीघ्रता से विकसित हो जाते है।
5. आलू की पत्तिया खस्ता आरै जल्दी टूटने वाली हो जाती है।
6. नीबू वर्गीय पौधों में पत्तियों पर अनियमित आकार के पीले धब्बे हो जाते हैं। ये पीली पत्तियाँ बाद में गिर जाती है।
सुधार
मृदा में मैग्नीशियम की कमी को दरू करने के लिए प्राय: मृदा सुधारकों जैसे डोलोमाइट , पोटासियम मैग्नीशियम सल्फटे आरै मैग्नीसाइट आदि का प्रयोग करते है। सल्फर की कमी के लक्षण
1. पत्तियाँ हल्की हरी होती है आरै समीप की शिराआें के बीच के भागों से शिराये हल्की होती है।
2. पत्तियों में कुछ मृत धब्बे पाये जाते है।
3. पुरानी पत्तियों का कछु या बिल्कलु नहीं सूखना।
4. फलों के पकने से पहले टटू ना या हल्का हरा रहना।
5. बहतु से पौधों में सल्फर की कमी के लक्षण लगभग उसी प्रकार के होते है जैसे कि नाइटा्रजे न की कमी के लक्षण होते हैं जिसकी वजह से कभी-कभी संसय होने से गलत अर्थ निकल जाता है क्योंकि दानों दशाओं में पत्तियाँ लगभग समान रूप से पीली या हरिमाहीन होती है। अन्तर यह है कि सल्फर (गंधक) की कमी होने पर पौधे की ऊपरी पत्तियाँ पहले पीली पड़ती है। जबकि नाइट्रोजन की कमी होने पर निचली पत्तियाँ पहले पीली पड़ती है। जब दोनों की कमी होती है। तब पौधों की ऊपरी आरै निचली दोनों पत्तियाँ पीली पड़ जाती है।
सुधार
सल्फर उवर्रको जैसे अमोनियम सल्फटे , जिप्सम, सुपर फास्फेट आदि के प्रयोग से सल्फर की कमी दूर की जा सकती है।
आवश्यक सस्ं ति तयाँ
1. अम्लीय मिट्टी में यूरिया का प्रयोग न करें सम्भव हो सके तो कैल्शियम अमोनियम नाइटट्रे उवर्रक का प्रयोग करे क्योंकि अमोनियम नाइटट्रे उवर्रक मे नाइट्रोजन के साथ-साथ कैल्शियम व मैग्नीशियम भी होता है जिससे अम्लीय मृदा में इसका प्रयोग अधिक लाभदायक होता है।
2. सिंचित दशा में फसलों के लिए नाइट्रोजन की कुल अनुमोदित मात्रा 2/3 भाग व फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करें। शेष नाइट्रोजन भी मात्रा को दो भागो मे बाँट कर पहली सिंचाई पश्चात् तथा दूसरी फलू आने के पूर्व करे।
3. खड़ी फसल में नत्रजन उर्वरक देते समय खते में उचित नमी होनी चाहिए। उर्वरक का प्रयोग समान रूप से करें, न कहीं ज्यादा आरै न कहीं कम।
4. फास्फारे स व पोटाश की खादों को कूँड में, बीज से 5 से.मी. गहराई पर अवस्थापन करे।
5. नत्रजन व पोटाश उर्वरको को कभी भी बीज के साथ मिलाकर नहीं बोना चाहिए ताकि अंकुरण पर विपरीत प्रभाव न पड़े।
6. असिंचित क्षेत्रों में पोटाश के समुचित प्रयोग से फसलों की जलाभाव अथवा सूखे को सहन करने की क्षमता को बढा़ या जा सकता है।
7. अधिक अम्लीय मिट्टी में चुने का प्रयोग करें तथा मन्द अम्लीय मिट्टी में जिप्सम का प्रयोग करें।
8. तिलहनी फसलों में सल्फर 20-50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से (2-5 कि.ग्रा. जिप्सम प्रतिनाली या 3 कि.ग्रा . प्रति नाली) प्रयोग करें।
9. सडी़ गोबर की खाद व अन्य फसल अवशेष मिट्टी की उर्वरता बनाने रखने के लिए उपयोगी है। अतः इनका प्रयोग अवश्य करें। इस प्रकार मिट्टी की जलधारण करने की क्षमता को बढा़ या जा सकता है।
10. फसलोत्पादन में रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जवै उर्वरको का प्रयोग करके, लागत कम करें ताकि रासायनिक उर्वरको द्वारा होने वाले खतरों को कम करें।
सावधानियाँ
पाला, सूखा, झुलसा, पोधो के कीड़े-मकोड़े और रोगों के आक्रमण, जलाक्रान्ति, मृदा की क्षारीयता, रसायनों की फुहारों से क्षति या अत्यधिक खनिज पोशाकों के विषैले प्रभावों के कारण अल्पता के लक्षण जटिल हो सकते है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि पोषक तत्वों की अल्पता के लक्षणो के कुशल प्रयोग के साथ-साथ निदान के अन्य विधियों जैसे पौधे और मृदा परीक्षण सही उर्वरक निर्धारण प्रक्रिया के लिए अच्छा कदम सिद्ध हो सकता है।
Bahut badiya sir ji
aisi jankari se har farmer bahut kuchh sikhega
Kino k pero ko faitofthora se kese bachav kren
लक्षण भेजे तभी सही उत्तर दे पाना उचित होगा