राइसबीन की खेती मे अधिकतम उत्पादन एवं फसल सुरक्षा हेतु ध्यान देने योग्य विशेष बिन्दु।

पर्वतीय क्षेत्रों के लिए राइसबीन एक उपयुक्त फसल है। मध्य एवं ऊॅचाई (1500-2200 मी. तक) वाले क्षेत्रों में जहाँ पर दूसरी दलहनी फसल जैसे उर्द, मूँग , अरहर आदि उगाना सम्भव नहीं होता है, वहॉ राइसबीन की फसल सुगमतापूर्वक उगाई जा सकती है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसे नौरंगी तथा रगड़मांस आदि नामों से जाना जाता है।

आमतौर पर राइसबीन की फसल मिश्रित खेती के रूप में ली जाती है। परन्तु इसकी शद्धु खेती अधिक लाभदायक होती है। ‘‘राइसबीन-गेहूॅ’’ एक आदर्श फसल चक्र है जिससे गेहुँ की फसल को वांछित नत्रजन की मात्रा का काफी भाग राइसबीन की फसल से प्राप्त हो जाता है।

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राइसबीन की उन्नत किस्में

हाल ही में राइसबीन की दो प्रजातियां पर्वतीय परिसर, रानीचौरी द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों के लिए विकसित की गयीं इनमें से पी.आर.आर.-1 प्रादेशिक स्तर से तथा पी.आर.आर.-2 राष्ट्रीय स्तर पर विमाे चत की गई है। पी.आर.आर.-1 की तुलना में पी.आर.आर.-2 की उपज क्षमता तथा प्रोटीन की मात्रा अधिक पाइ र् गई है।

उन्नत किस्में                                        प्रजाति उत्पादकता दानों का रंग (कु./है.)
पी.आर.आर. 1                                                   12-15 काला
पी.आर.आर. 2                                                  12-15 हल्का पीला

बुवाई का समय

ऊॅचे पर्वतीय क्षेत्र –   मई द्वितीय पखवाड़ा
निचले पर्वतीय क्षेत्र – जून प्रथम पखवाड़ा

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बीज की मात्रा

बुवाई के लिए 15-20 कि.ग्रा./है. (300-400 गा्र ./नाली) बीज पर्याप्त होता है। पंक्ति से पंक्ति  की दूरी 40-50 से.मी. उपयुक्त होती है।

खाद एवं उर्वरक

राइसबीन उगाने के लिए ज्यादा उर्वरक प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती है। 20 कि.ग्रानत्र जन तथा 40 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टर (400 ग्रा. नत्रजन तथा 800 ग्रा. फास्फोरस प्रति नाली) मात्रा पर्याप्त होती है।

निराई-गुड़ाई-खरपतवार नियंत्रण

आवश्यकतानुसार बुवाई के एक माह तक दो या तीन बार गुड़ाई करने से फसल की जड़ो को उचित वातावारण मिलने के साथ-साथ खरपतवारों का भी विनाश होता है।

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उपज

उन्नत प्रजातियों से 10-15 कुन्तल उपज प्रति है (30 से 40 कि.ग्रा/नाली) आसानी से प्राप्त की जा सकती है।

भण्डारण के समय राइसबीन के दानों में कीड़ों का प्रकापे अपेक्षाकृत कम पाया जाता है।

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